उस समूह के देश, जिन्हें कुछ भाषाओं में “ब्रिक्स” कहा जाता है, एक बहुध्रुवीय विश्व के लिए काम कर रहे हैं, यानि, उन वर्चस्ववादी ताकतों की वर्तमान स्थिति पर काबू पाने के लिए जो दुनिया को सैन्य, आर्थिक, राजनीतिक और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में अपने हितों का पालन करने के लिए मजबूर करने की कोशिश कर रहे हैं।
यह सही है कि लोग अब अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में अमेरिकी डॉलर के उपयोग के आर्थिक ब्लैकमेल से खुद को मुक्त करने की कोशिश कर रहे हैं, और इस गतिविधि को सामान्य रूप से “डी-डॉलराइज़ेशन” के रूप में जाना जाता है। आशा है कि यह धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से आगे बढ़ेगा।
लेकिन अमेरिकी बोलबाला का एक और तत्व भी है जिसका विरोध किया जाना चाहिए। यह भाषा के माध्यम से सांस्कृतिक प्रभुत्व का है। यदि किसी ने कभी अंग्रेज़ी से अनुवादित टेलीविज़न कार्यक्रम नहीं सुना है या मूल रूप से अंग्रेज़ी में लिखी गई पुस्तक नहीं पढ़ी है, तो कृपया अपना हाथ उठाएँ।
वर्षों पहले १४९२ में, आधुनिक भाषाओं में से एक, स्पेनिश, के व्याकरण के पहले यूरोपीय लेखक एंटोनियो डी नेब्रिहा ने प्रस्तावना में लिखा था: “भाषा हमेशा साम्राज्य की साथी रही है” और यह आज भी सच है और संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा लक्षित एकध्रुवीय विश्व अपने साम्राज्य में अंग्रेज़ी का उपयोग करता है।
बेशक, इससे संयुक्त राज्य अमेरिका और अन्य अंग्रेज़ी बोलने वाले देशों को बहुत लाभ होगा — आर्थिक (शिक्षक, शिक्षण सामग्री, आदि) और सांस्कृतिक, क्योंकि भाषा के माध्यम से व्यक्ति अपने समाज के मूल्यों, उदारवाद, अनियमित प्रतिस्पर्धा, कमज़ोरों की जरूरतों की उपेक्षा, अन्य देशों के साथ अनुचित व्यापार का औचित्य आदि को प्रस्तुत करता रहता है। हम यह अच्छी तरह जानते हैं। भाषा के माध्यम से वे हमें विश्व और लोगों के बीच संबंधों की अपनी अवधारणा में समाहित करने का प्रयास करते हैं।
लेकिन क्या हम सचमुच चाहते हैं कि इस बहुकेन्द्रित विश्व में ऐसा सांस्कृतिक साम्राज्यवाद विद्यमान रहे? यदि अंग्रेज़ी को छोड़ दिया जाए तो यह साम्राज्यवादी दुष्प्रचार के खिलाफ एक झटका होगा और सभी संस्कृतियों और सभी भाषाओं को स्वतंत्र रूप से और पूरी तरह से विकसित होने की आज़ादी मिलेगी, और ब्रिक्स देश खुद को थोड़ा बेहतर जान पाएंगे। यह कल्पना करना आसान है कि ब्रिक्स देशों के स्कूलों में अंग्रेज़ी पाठ्यक्रम वर्तमान में लागू अंग्रेज़ी संस्कृति से हटकर रूसी, चीनी, भारतीय, अरबी, फ़ारसी आदि भाषाओं के ज्ञान की बहुलता की ओर परिवर्तित हो जाएगा।
ब्रिक्स देशों के बीच संबंधों में संचार भाषा की समस्या उत्पन्न होगी। जब साझेदार की प्रत्यक्ष भाषाओं का उपयोग करना संभव न हो, तो अधिक स्वाभाविक, अधिक तटस्थ और ब्रिक्स मूल्यों के साथ अधिक सुसंगत समाधान अंतर्राष्ट्रीय भाषा एस्पेरांतो का उपयोग है, जिसे एक बार साम्राज्यवादी विचारों के कारण (1920 के दशक में) राष्ट्र संघ में फ़्रांस द्वारा अवरुद्ध किया गया था, और अब व्यवहार में अमेरिकी साम्राज्य द्वारा अवरुद्ध किया गया है।
अंग्रेज़ी को छोड़ने के लिए कोई लागत नहीं लगती, बल्कि इससे बचत होती है और सभी की समान गरिमा बहाल होती है। कल्पना कीजिए कि जब ब्रिक्स देशों की बैठकों में सभी को अपनी भाषा या तटस्थ एस्पेरांतो बोलने की अनुमति होगी।
— रेनातो कोर्सेत्ति (अनुवाद: गिरिधर राव)